रविवार, 17 जून 2018

सर पास ट्रैक : दूसरा दिन, कसौल में कुछ घूमगश्त



यह दिन जलवायु अनुकूलता का था जिसे हम acccmlatization भी कहते हैं। सुबह सुबह दल को एक हल्की मॉर्निंग वॉक पर ले जाया गया जहाँ कुछ पीटी नुमा व्यायाम भी हुआ। मेरा स्वयं का मानना है कि जिन लोगों का पहाड़ों में अधिक आना जाना नही है उन्हें कोई भी ऊँचाईं वाली ट्रैक करने से पूर्व कम से कम एक दिन शुरुवात में जलवायु अनुकूलता के लिए रखना चाहिए। इससे शरीर को ams(acute mountain sickness) से लड़ने में काफी सहायता मिलती है। स्वयं पहाड़ी होते हुए भी और साल में कम से कम दो हिमालयी ट्रैक करने के वावजूद मुझे अमूमन 4000 मीटर से अधिक ऊँचाईं वाली ट्रैक्स पर एक न एक दिन ams के कारण सरदर्द हो ही जाता है। ऊँचे स्थानों पर जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले सरदर्द,अनिद्रा, भूख न लगना, उल्टी आने जैसे लक्षणों को ही ams कहा जाता है। मेरा स्वयं का मानना है कि किसी भी 3500 मी से ऊपर वाली ट्रैक पर पहला दिन तो जलवायु अनुकूलन के रखना चाहिए। खैर इन सबके साथ एक अन्य समस्या पिछले दिन ही उत्पन्न हो गयी थी। yhai में एक नियम है कि ट्रैक में रिपोर्ट करते हुए आपको एक mbbs डॉक्टर से सत्यापित मेडिकल सर्टिफिकेट जमा कराना होता है ,जो आपको ट्रैक में जाने हेतू शारीरिक रूप से सक्षम घोषित करता है। सच बताऊँ तो मुझे यह किसी सरकारी कागज़ी पचड़े से कम नही लगता। अधिकतर ट्रैकिंग कंपनी /एजेंसी आपको एक पत्र पर हस्ताक्षकर करने को कहते हैं ,जिसमें आप ट्रैक में होने वाली किसी भी दुर्घटना या नुकसान की जिम्मेदारी उठाने की हामी भरते हैं, मेरे विचार में सबसे उपयुक्त और परिपक्व तरीका यही है। स्वाभाविक सी बात है कि पहाड़ी इलाकों में ट्रैक करते हुए जोखिम हमेशा ज्यादा रहता ही है और दुर्घटनाये होना कोई नई बात नही है, पिछले साल ही प्रतीक ने चादर वाक की थी लद्दाख में और उसने बताया कि उसके बैच के कुछ दिन बाद ही दो लोगों की बर्फ में फिसलने से मृत्यु हो गयी। तमिल नाडु में ट्रैकर्स का एक समूह तो वन में लगी अकास्मिक आग में ऐसे फँसा कि दल के कम से कम 4 लोगों की मृत्यु हो गयी। ऐसी सारी घटनाएं सच में दुखद हैं, परंतु मेरे अनुसार यदि ट्रैकर इन सबकी जिम्मेदारी उठाने वाले पत्र पर हस्ताक्षर कर रहा तो तो उसे ही काफी मानना चाहिए। खैर yhai वालों की सोच कुछ अलग है,वे ऐसे किसी पत्र पर तो हस्ताक्षर नही कराते अलबत्ता ये मेडिकल सर्टिफीकेट माँगते हैं।मैं इसके विषय में जानता था और इसीलिए अपना और प्रियंका का मुम्बई से ही सर्टिफिकेट साइन करवा के चला था। कुछ कारणवश निशा वह लाना भूल गयी। अब उस मेडिकल सर्टिफिकेट को प्राप्त करना अपने में एक गाथा है। चूँकि वह सर्टिफिकेट लायी नही तो एक नया काम हो गया डॉक्टर ढूँढना, कसौल जैसे छोटे से कस्बे में mbbs का मिलना अपने में एक आश्चर्य होगा,इसीलिए मिला भी नही, एक डेंटिस्ट साहब मिले जिन्होंने अपेक्षानुसार मना ही किया और एक आयुर्वेदाचार्य जो अवकाश पर थे। किसी तरह निशा ने अपने घर फोन करके अपने पारिवारिक डॉक्टर द्वारा एक मेडिकल सर्टिफिकेट ई मेल द्वारा मँगवाया और उसे ही प्रिंट करके दिया। किसी तरह yhai के सर्वे सर्वा मान ही गए पर इस सब में बड़ी भाग दौड़ हुई। मेरी समझ में यह नही आता कि यदि मेडिकल सर्टिफिकेट जमा करवाने के बाद भी किसी ट्रैकर की आगे हालत खराब होती है तो क्या होगा और यदि yhai ट्रैकर्स के स्वास्थ्य के प्रति इतना ही चिंतित है तो बेस कैम्प में ही एक डॉक्टर बुलवा कर ट्रैकर्स का स्वास्थ्य परीक्षण क्यूँ नही करवाता ? इससे तो वह अधिक आस्वस्त होंगे कि सारा चैक अप उनकी आँखों के सामने हुआ है। जो भी हो इस दिन दोपहर में एक अकमलाटाइज़ेशन वाक पर भेजा गया या यूँ कहिये दो एक किलामीटर की चहलकदमी एक पास ही की पहाड़ी में। यह ट्रैकर्स को आने वाले दिनों के पहाड़ी रास्तों से परिचित कराने मात्र के लिए था । एक बात जिसने हमें परेशान किया वह थी अनेकानेक वाहनों के चलेने से सड़क पर उड़ती हुई बेतहाशा धूल। कसौल किसी जमाने के एक गाँव से अब एक पूर्ण विकसित पर्यटक कस्बा बन चुका है, कभी इस्रायली पर्यटकों तक ही लोकप्रिय यह स्थल अब आम भारतीय पर्यटक की सूची में भी रहता है और उनके लिए बनने लगे हैं यहाँ कई विशालकाय होटल और रिसोर्ट। इस कस्बे में शहरीकरण और और निर्माणकार्य ज़ोरो पर चल रहा है, हर साल पर्यटकों की आमद भी बढ़ रही है परंतु उस सब के अनुसार मुझे प्रशासनिक व्यवस्था अत्यंत ढीली दिखी। यह कहना अतिश्योक्ति नही होगी कि अनगिनत होटलों और रेस्त्रां के कारण कुल्लू ज़िला हिमाचल में सबसे अधिक व्यावसायिक कर देने वाले जिलों में होगा, उसमें भी कसौल इतना छोटा कस्बा होते हुए अच्छा खासा योगदान देता होगा परंतु धरातल में उसके परिणामस्वरूप मिलने वाली मूलभूत सुविधाएं कुछ दिखी नही। वैसे तो भुंतर से ही कसौल जाने वाली सड़क कस हाल बेहाल है पर कसौल के अंदर तो हालात बद से बद्तर हैं, पूरी सड़क धूल का एक अम्बार है और हर आने जाने वाले वाहन के साथ पर्यटकों के चेहरे में सन कर यह धूल आपका स्वागत करती है। पूरे शहर में कचरे के निस्तारण की कोई व्यवस्था नही है। पार्वती नदी के किनारे कचड़ा फेंकने की जगह बनी हुई है। मैने जब कुछ स्थानीय वासियों से इसके विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि कचड़ा उठाने के लिए कोई प्रसाशनिक वाहन तो आता है पर वह भी संभवतः कस्बे से कुछ दूर पार्वती के किनारे ही कूड़े से पाटते हैं। सड़क से उड़ती धूल का तो यह आलम है कि कई होटल स्वामियों ने कुछ कर्मचारी मात्र इसलिए लगाए हुए हैं जो उनके प्रांगण के आगे की सड़क पर जल छिड़काव करते रहें ताकि धूल उड़कर उनके परिसर तक न आये। सीवर तो खैर हमारे नदी किनारे बसे सारे शहरों की ही तरह सीधा नदी में गिरती है, पूरा बाजार खुली नालियों से सुशोभित है। ट्रैफिक इतना कि महज़ 200 मीटर लंबी बाजार से गुजरने वाली सड़क पार करने में आधा घंटा लगता है। खैर कुछ इस तरह कैम्प में पहले दिन का समापन हुआ और यह कुअनुभव भी हुआ कि कैसे एक शांत पहाड़ी गाँव पर्यटन के मानचित्र में स्थापित होने हेतू बाज़ारवाद और शहरीकरण की एक गलत दिशा में चल निकला। 

सर पास ट्रैक : पहला दिन, कसौल आगमन



कई मित्रों की सलाह थी और स्वयं का भी मन था कि yhai की सुप्रसिद्ध ट्रैक 'सर पास' तो एक बार करनी ही है। मुझे yhai की सदस्यता लिए लगभग 4 साल हो गए हैं, इस बीच इनके द्वारा आयोजित मनाली साइकलिंग, कोडाइकनाल-मुन्नार ट्रैकिंग और मनाली-लेह-खारदूंगला साइकलिंग यात्रा कर चुका हूँ और अमूमन हर ट्रैक पर सरपास का अनुभव लिए हुए भाग्यशाली जन मिल ही जाते हैं। पिछले साल जब मनाली लेह खारदूंगला साइलकिंग यात्रा पर गया था तो कई मित्र बने थे जिन्होंने सर पास ट्रैक की थी और इसकी जम कर तरीफ करते थे, एक महाशय ने तो यहाँ तक कहा कि "sar pass trek is the gem of yhai" यह सब सुनकर मन का लालायित होना तो स्वाभाविक ही था। तो इस बार 2017 अंतिम महीनों में ही तय कर लिया गया था कि 2018 की मई वह यादगार महीना होगा जब सरपास ट्रैक का आनंद उठाया जाएगा। प्रतीक से मुलाकात yhai की ही कोडाइकनाल-मुन्नार ट्रैक में हुई थी और तब से वह परम मित्रों की सूची में विद्यमान है। कॉरपोरेट जीवन में 6 साल से अधिक बिताने पर भी मेरे ज्यादातर मित्र घूमने फिरने में ही बने हैं। प्रतीक कब से सर पास ट्रैक हेतू दिन निर्धारित करने को कह ही रहा था, फिर उसके अनुसार हमें अपनी अपनी फ्लाइट्स भी बुक करानी थी इसीलिए जितना जल्दी हो उतना सही था। और मित्रों को भी सूचित किया गया। निशा, जिससे कि कर्नाटक की कुमार्पर्वत ट्रैक में मुलाकात हुई थी और तत्पश्चात हम बैंगलोर के आसपास ही कुछ साइकलिंग यात्रओं पर भी गए थे। निशा ने कभी कोई लंबी हिमालयी ट्रैक नही की थी और वह भी ऐसी किसी ट्रैक में जाने का सोच रही थी इसीलिए उसने भी हामी भर ली। इस बीच मैने नवंबर 2017 अपनी जॉब और शहर दोनों बदले और बैंगलोर से मुंबई स्थानांतरित हो चुका था। भाग्य के संयोग से इस बीच प्रियंका से मिलना हुआ और माता पिता के प्रेममय उलाहनाओं के चलते हम दोनों ने विवाह भी कर लिया। अब प्रियंका को ट्रैकिंग का इतना अधिक अनुभव तो न था पर जब मैने उसे इस ट्रैकिंग के विषय में बताया तो वह सहर्ष राजी हो गयी और उसकी दृढ़ता देख मैं भी खुश था। प्रतीक के साथ उसके स्कूली दोस्त भी आ रहे थे सौरव और सुदीप अतएव अपनी टोली पूरी 6 लोगों की हो चली थी। मध्यम वर्गीय सोच के कारण और घुम्मक्कड़ी के पहले सिद्धांत के अनुरूप मैं जितना हो सके राज्य परिवहन बसों से ही सफर करता हूँ पर इस बार फ्लाइट का समय कुछ ऐसा था कि कसौल(सर पास का बेस पॉइंट)/ भुंतर जाने वाली सारी बसें 11 बजे तक दिल्ली से निकल जाती हैं और हम दिल्ली उतरने वाले थे शुक्रवार 25 मई को लगभग 10 30 बजे ,इसलिए हिमाचल परिवहन या कोई भी प्राइवेट बस तो अपने नसीब में थी नही। यही सब सोचते हुए मैने पहले से ही एक कैब बुक करवा ली थी दिल्ली हवाई अड्डे से कसौल तक के लिए।मैं और प्रियंका तो थे ही , निशा ने भी साथ चलने को कह दिया था तो कैब बुक कराना इतना भी नही अखरा। 7000 में बुकिंग हुई इसके अतिरिक्त मैने एयरपोर्ट पार्किंग चार्ज और ड्राइवर के दो समय के खाने का मिलाकर लगभग 400 रु और दिए, बुकिंग tajtrip नाम की एजेंसी से करवाई थी और उनके ड्राइवर और गाड़ी से मैं संतुष्ट था। हमारा बैच 25 मई के था, yhai में पहला दिन रिपोर्टिंग का होता है और फिर पूरा दिन कुछ नही, आगे के दो दिन भी उस स्थान पर अनुकूलता/अकमलाटाइज़ेशन के लिए होते हैं, इसीलिए हमने पहले दिन बचाने का तय किया और सीधा दूसरे दिन यानी कि 26 की सुबह सुबह पहुँचने का निर्णय लिया। दिल्ली हवाई अड्डे से निकलते हुए ही रात के 12 बज चुके थे। रास्ते में निशा को पिक करना था, निशा बैंगलोर में काम करती है और दिल्ली में नरेला में उसका घर है।वह दिन में ही अपने घर पहुँच चुकी थी। नरेला से उसे पिक करते हुए सीधा मूरथल रुके। एक तो NH1 पर मूरथल का अपना एक आकर्षण है दूसरा दिल्ली में पढ़ाई के दौरान 5 साल रहते हुए भी कभी यहाँ न आ पाया था, इसीलिए वहाँ रात में पराठे खाने की कब से तमन्ना थी।ड्राइवर के परामर्श पर सुखदेव ढाबे में रुके, निशा अपने घर से पुलाव लायी ही थी ,फिर भी उत्साह में दो पराठे और दो चाय मँगवा ही ली, पराठे तो लज़ीज थे ही पर वहाँ मिली चाय के विषय में यदि कहूँ कि वह स्वाद के नए कीर्तिमान स्थापित कर रही थी तो अतिशयोक्ति न होगी। 30 रुपये में हाइवे पर चाय कुछ महँगी लग सकती है पर उसकी मात्रा ने आधी शिकायत दूर कर दी। चाय ऐसी कि मेरे अंदर का हरियाणा जाग गया ! वैसे तो मैं ठेठ उत्तराखंडी हूँ पर शायद कॉलेज के दोस्तों के कारण या दिल्ली के हरयाणवी माहौल में बिताए सालों के कारण मुझे उत्तर भारत में स्वयं के राज्य के पश्चात सबसे अधिक स्नेह हरियाणा से ही है। वहाँ के खान पान और संस्कृति शुरू से ही मुझे भाती है, सुखदेव ढाबे पर पी वह खालिस दुधियाल चाय शायद किसी हरियाणवी दोस्त के ही घर पी हो कभी। चाय पूरे दूध और वह भी ताज़े दूध की थी, क्योंकि उसमें ताज़े निकाले गए दूध की हल्की हल्की महक अभी भी आ रही थी। खैर इस खाने पीने के दौर में ही 1 घंटा निकल गया। एजेंसी ने चंडीगढ़ से दूसरे ड्राइवर का प्रबंध किया था ,तो इन ड्राइवर साहब ने मोहाली में दूसरी गाड़ी में बैठाते हुए हमसे विदा ली। मोहाली से निकलते हुए सुबह हो चुकी थी। स्वारघाट होते हुए अभी बिलासपुर पहुँचे भी नही थे कि कई किमी लंबा जाम मिला। पता चला मुड़ते हुए कोई ट्रक सड़क से नीचे दरक गया था जिससे पूरा रास्ता बंद था, इस जाम ने पूरे दो घंटे अपने नाम किए इस बीच धूप इतनी थी कि गाड़ी में बैठा भी नही जा रहा था और पहाड़ी मार्ग पर इंजन पर अधिक जोर पड़ने का हवाला देते हुए ड्राइवर साहब ac भी नही चला रहे थे।संयोग से जाम में जिस जगह हम खड़े थे कुछ ही दूरी पर आगे एक ढाबा था। किसी तरह गाड़ी उस ढाबे किनारे लगवाई। मैने यहीं हाथ मुँह धोकर ब्रश कर लिया और मेरी सुबह की चाय का भी वक़्त हो चला था। खाने के विकल्प में मात्र पराठे और मैगी ही थे अतएव पराठे ही मँगवा लिए। ढाबा बिलासपुर के ही एक दम्पती चलाते हैं ,जाम खत्म होने तक उनसे कुछ बातचीत की और इस बीच हमारे ड्राइवर साहब ने भी भोग लगाया। अब लक्ष्य शाम से पहले कसौल पहुँचने का था। गर्मियों की छुट्टी का मौसम होने के कारण, पर्यटकों से सड़क अटी पड़ी थी और रास्ते में भी छोटे छोटे जाम मिलते रहे।भुंतर से कसौल तक की सड़क का तो हाल ही बुरा है। लगभग शाम के 3-4 बजे तक कसौल yhai के कैम्प पहुँचे। प्रतीक, सुदीप और सौरव हमसे कुछ आधे घंटे बाद ही पहुँच गए। प्रतीक दरअसल कसौल एक दिन पहले ही पहुँच गया था, क्योंकि उन्हे खीरगंगा ट्रैक भी करनी थी, जो कि कसौल से ही थोड़ा आगे बर्शेणी गाँव से शुरू होती है। मेरे पास एक तो छुट्टियों का आभाव था दूसरा इतने दूर से आकर मैं खीरगंगा, त्रिउंड जैसे भीड़भाड़ वाली ट्रैक के पक्ष में नही था। इन लोकप्रिय हो चली ट्रैक्स का लाभ तो है कि यह काफी कम दूरी की होती हैं और कोई भी आम तंदुरुस्ती वाला मनुष्य इसे आसानी से 1 से 2 दिन में कर सकता है परंतु यही इन ट्रैक्स के लिए अभिशाप भी बनता है। आसान होने के कारण दिल्ली के हर कोई कॉलेज के बालक भी डेकाथलान से जूते खरीद कर और सनग्लासेस लगाकर यहाँ 'ट्रैकर' बनने पहुँच जाते हैं। जिस ट्रैक पर हर 10 मिनट पर आपको लोगों का समूह आता जाता दिखे और पहाड़ की शांत वादियों को अपने पोर्टेबल स्पीकर्स की उच्चतम ध्वनि से चुनौती देते हुए युवा दिखें वहाँ भला क्या आनंद। खैर जो भी हो मैं मात्र इस बात से संतुष्ट रहता हूँ कि चाहे जैसे भी हों, इन्ही लोगों के कारण ग्रामीणों को कुछ रोज़गार तो मिलता है। चलिए जो भी हो इसी तरह हम सबने कैम्प में रिपोर्टिंग की और पहले दिन का समापन हुआ।