रविवार, 17 जून 2018

सर पास ट्रैक : पहला दिन, कसौल आगमन



कई मित्रों की सलाह थी और स्वयं का भी मन था कि yhai की सुप्रसिद्ध ट्रैक 'सर पास' तो एक बार करनी ही है। मुझे yhai की सदस्यता लिए लगभग 4 साल हो गए हैं, इस बीच इनके द्वारा आयोजित मनाली साइकलिंग, कोडाइकनाल-मुन्नार ट्रैकिंग और मनाली-लेह-खारदूंगला साइकलिंग यात्रा कर चुका हूँ और अमूमन हर ट्रैक पर सरपास का अनुभव लिए हुए भाग्यशाली जन मिल ही जाते हैं। पिछले साल जब मनाली लेह खारदूंगला साइलकिंग यात्रा पर गया था तो कई मित्र बने थे जिन्होंने सर पास ट्रैक की थी और इसकी जम कर तरीफ करते थे, एक महाशय ने तो यहाँ तक कहा कि "sar pass trek is the gem of yhai" यह सब सुनकर मन का लालायित होना तो स्वाभाविक ही था। तो इस बार 2017 अंतिम महीनों में ही तय कर लिया गया था कि 2018 की मई वह यादगार महीना होगा जब सरपास ट्रैक का आनंद उठाया जाएगा। प्रतीक से मुलाकात yhai की ही कोडाइकनाल-मुन्नार ट्रैक में हुई थी और तब से वह परम मित्रों की सूची में विद्यमान है। कॉरपोरेट जीवन में 6 साल से अधिक बिताने पर भी मेरे ज्यादातर मित्र घूमने फिरने में ही बने हैं। प्रतीक कब से सर पास ट्रैक हेतू दिन निर्धारित करने को कह ही रहा था, फिर उसके अनुसार हमें अपनी अपनी फ्लाइट्स भी बुक करानी थी इसीलिए जितना जल्दी हो उतना सही था। और मित्रों को भी सूचित किया गया। निशा, जिससे कि कर्नाटक की कुमार्पर्वत ट्रैक में मुलाकात हुई थी और तत्पश्चात हम बैंगलोर के आसपास ही कुछ साइकलिंग यात्रओं पर भी गए थे। निशा ने कभी कोई लंबी हिमालयी ट्रैक नही की थी और वह भी ऐसी किसी ट्रैक में जाने का सोच रही थी इसीलिए उसने भी हामी भर ली। इस बीच मैने नवंबर 2017 अपनी जॉब और शहर दोनों बदले और बैंगलोर से मुंबई स्थानांतरित हो चुका था। भाग्य के संयोग से इस बीच प्रियंका से मिलना हुआ और माता पिता के प्रेममय उलाहनाओं के चलते हम दोनों ने विवाह भी कर लिया। अब प्रियंका को ट्रैकिंग का इतना अधिक अनुभव तो न था पर जब मैने उसे इस ट्रैकिंग के विषय में बताया तो वह सहर्ष राजी हो गयी और उसकी दृढ़ता देख मैं भी खुश था। प्रतीक के साथ उसके स्कूली दोस्त भी आ रहे थे सौरव और सुदीप अतएव अपनी टोली पूरी 6 लोगों की हो चली थी। मध्यम वर्गीय सोच के कारण और घुम्मक्कड़ी के पहले सिद्धांत के अनुरूप मैं जितना हो सके राज्य परिवहन बसों से ही सफर करता हूँ पर इस बार फ्लाइट का समय कुछ ऐसा था कि कसौल(सर पास का बेस पॉइंट)/ भुंतर जाने वाली सारी बसें 11 बजे तक दिल्ली से निकल जाती हैं और हम दिल्ली उतरने वाले थे शुक्रवार 25 मई को लगभग 10 30 बजे ,इसलिए हिमाचल परिवहन या कोई भी प्राइवेट बस तो अपने नसीब में थी नही। यही सब सोचते हुए मैने पहले से ही एक कैब बुक करवा ली थी दिल्ली हवाई अड्डे से कसौल तक के लिए।मैं और प्रियंका तो थे ही , निशा ने भी साथ चलने को कह दिया था तो कैब बुक कराना इतना भी नही अखरा। 7000 में बुकिंग हुई इसके अतिरिक्त मैने एयरपोर्ट पार्किंग चार्ज और ड्राइवर के दो समय के खाने का मिलाकर लगभग 400 रु और दिए, बुकिंग tajtrip नाम की एजेंसी से करवाई थी और उनके ड्राइवर और गाड़ी से मैं संतुष्ट था। हमारा बैच 25 मई के था, yhai में पहला दिन रिपोर्टिंग का होता है और फिर पूरा दिन कुछ नही, आगे के दो दिन भी उस स्थान पर अनुकूलता/अकमलाटाइज़ेशन के लिए होते हैं, इसीलिए हमने पहले दिन बचाने का तय किया और सीधा दूसरे दिन यानी कि 26 की सुबह सुबह पहुँचने का निर्णय लिया। दिल्ली हवाई अड्डे से निकलते हुए ही रात के 12 बज चुके थे। रास्ते में निशा को पिक करना था, निशा बैंगलोर में काम करती है और दिल्ली में नरेला में उसका घर है।वह दिन में ही अपने घर पहुँच चुकी थी। नरेला से उसे पिक करते हुए सीधा मूरथल रुके। एक तो NH1 पर मूरथल का अपना एक आकर्षण है दूसरा दिल्ली में पढ़ाई के दौरान 5 साल रहते हुए भी कभी यहाँ न आ पाया था, इसीलिए वहाँ रात में पराठे खाने की कब से तमन्ना थी।ड्राइवर के परामर्श पर सुखदेव ढाबे में रुके, निशा अपने घर से पुलाव लायी ही थी ,फिर भी उत्साह में दो पराठे और दो चाय मँगवा ही ली, पराठे तो लज़ीज थे ही पर वहाँ मिली चाय के विषय में यदि कहूँ कि वह स्वाद के नए कीर्तिमान स्थापित कर रही थी तो अतिशयोक्ति न होगी। 30 रुपये में हाइवे पर चाय कुछ महँगी लग सकती है पर उसकी मात्रा ने आधी शिकायत दूर कर दी। चाय ऐसी कि मेरे अंदर का हरियाणा जाग गया ! वैसे तो मैं ठेठ उत्तराखंडी हूँ पर शायद कॉलेज के दोस्तों के कारण या दिल्ली के हरयाणवी माहौल में बिताए सालों के कारण मुझे उत्तर भारत में स्वयं के राज्य के पश्चात सबसे अधिक स्नेह हरियाणा से ही है। वहाँ के खान पान और संस्कृति शुरू से ही मुझे भाती है, सुखदेव ढाबे पर पी वह खालिस दुधियाल चाय शायद किसी हरियाणवी दोस्त के ही घर पी हो कभी। चाय पूरे दूध और वह भी ताज़े दूध की थी, क्योंकि उसमें ताज़े निकाले गए दूध की हल्की हल्की महक अभी भी आ रही थी। खैर इस खाने पीने के दौर में ही 1 घंटा निकल गया। एजेंसी ने चंडीगढ़ से दूसरे ड्राइवर का प्रबंध किया था ,तो इन ड्राइवर साहब ने मोहाली में दूसरी गाड़ी में बैठाते हुए हमसे विदा ली। मोहाली से निकलते हुए सुबह हो चुकी थी। स्वारघाट होते हुए अभी बिलासपुर पहुँचे भी नही थे कि कई किमी लंबा जाम मिला। पता चला मुड़ते हुए कोई ट्रक सड़क से नीचे दरक गया था जिससे पूरा रास्ता बंद था, इस जाम ने पूरे दो घंटे अपने नाम किए इस बीच धूप इतनी थी कि गाड़ी में बैठा भी नही जा रहा था और पहाड़ी मार्ग पर इंजन पर अधिक जोर पड़ने का हवाला देते हुए ड्राइवर साहब ac भी नही चला रहे थे।संयोग से जाम में जिस जगह हम खड़े थे कुछ ही दूरी पर आगे एक ढाबा था। किसी तरह गाड़ी उस ढाबे किनारे लगवाई। मैने यहीं हाथ मुँह धोकर ब्रश कर लिया और मेरी सुबह की चाय का भी वक़्त हो चला था। खाने के विकल्प में मात्र पराठे और मैगी ही थे अतएव पराठे ही मँगवा लिए। ढाबा बिलासपुर के ही एक दम्पती चलाते हैं ,जाम खत्म होने तक उनसे कुछ बातचीत की और इस बीच हमारे ड्राइवर साहब ने भी भोग लगाया। अब लक्ष्य शाम से पहले कसौल पहुँचने का था। गर्मियों की छुट्टी का मौसम होने के कारण, पर्यटकों से सड़क अटी पड़ी थी और रास्ते में भी छोटे छोटे जाम मिलते रहे।भुंतर से कसौल तक की सड़क का तो हाल ही बुरा है। लगभग शाम के 3-4 बजे तक कसौल yhai के कैम्प पहुँचे। प्रतीक, सुदीप और सौरव हमसे कुछ आधे घंटे बाद ही पहुँच गए। प्रतीक दरअसल कसौल एक दिन पहले ही पहुँच गया था, क्योंकि उन्हे खीरगंगा ट्रैक भी करनी थी, जो कि कसौल से ही थोड़ा आगे बर्शेणी गाँव से शुरू होती है। मेरे पास एक तो छुट्टियों का आभाव था दूसरा इतने दूर से आकर मैं खीरगंगा, त्रिउंड जैसे भीड़भाड़ वाली ट्रैक के पक्ष में नही था। इन लोकप्रिय हो चली ट्रैक्स का लाभ तो है कि यह काफी कम दूरी की होती हैं और कोई भी आम तंदुरुस्ती वाला मनुष्य इसे आसानी से 1 से 2 दिन में कर सकता है परंतु यही इन ट्रैक्स के लिए अभिशाप भी बनता है। आसान होने के कारण दिल्ली के हर कोई कॉलेज के बालक भी डेकाथलान से जूते खरीद कर और सनग्लासेस लगाकर यहाँ 'ट्रैकर' बनने पहुँच जाते हैं। जिस ट्रैक पर हर 10 मिनट पर आपको लोगों का समूह आता जाता दिखे और पहाड़ की शांत वादियों को अपने पोर्टेबल स्पीकर्स की उच्चतम ध्वनि से चुनौती देते हुए युवा दिखें वहाँ भला क्या आनंद। खैर जो भी हो मैं मात्र इस बात से संतुष्ट रहता हूँ कि चाहे जैसे भी हों, इन्ही लोगों के कारण ग्रामीणों को कुछ रोज़गार तो मिलता है। चलिए जो भी हो इसी तरह हम सबने कैम्प में रिपोर्टिंग की और पहले दिन का समापन हुआ। 

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